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पच्चीस दिन पच्चीस कविताएं

25 days 25 poems

Day 1    समय

आसमान धुला, नीला, धूप में खिला खिला
रुई के मुलायम फुग्गे जैसे बादलों से खेलता
वो समय याद हो आया, जब माँ
सफेद यूनिफार्म नील लगाकर धूप में सुखाती थी
लगा जैसे वो समय लौट आया
शनिवार बुधवार सब एक जैसे
न कहीं जाने की जल्दी
न कुछ पाने का जुनून
सुबह सवेरे छज्जे से लूडो, कैरम
शतरंज का सामान उतर आया
लगा जैसे बचपन का समय लौट आया
इतवार को राम जी के सामने
हाथ जोड़े बैठी नानी
दूरदर्शन पर पुरानी फिल्में,रामायण
महाभारत का शंखनाद उभर आया।
धीमी चाल से चलती ज़िन्दगी
थोड़े में पेट और मन भर जाना
घंटों बालकनी से आसमान को निहारना
पड़ोसियों को खिड़की से आवाज़ दे बुलाना
न कल की चिंता, न भविष्य के जोड़ तोड़
थोड़े साधनों में बहुत खुश हो जाना
आसमान में लौट आये पंछी
चिड़ियों का भरी दोपहर में चहचहाना
लगा पुराना समय लौट आया।
ईश्वर हमें फिर वो समय लौट दें
जो रुग्ण हैं उन्हें स्वास्थ्य और हौसला दें
प्रकृति के साथ सामंजस्य से रहें सब जीव
मिलकर हम विषम आपदा को हरा दें।

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Day2   कल

‘कल’ की चिंता करे रे मानस
‘आज’ खड़ा मुह ताके
पल पल कर के बीत गया दिन
क्यों तू बुलबुले के पीछे भागे

कल का नहीं भरोसा कुछ भी
बस ये पल है तेरा अपना
जी ले इनको जी भर के
कल पंख पखेरू सपना

एक छोटा सा घर करने को
दौड़ रहा दिन रात
सड़कों पर कटते हैं घंटे
न आया कोई सुख हाथ

नज़र उठा के देख ज़रा
अनुपम दुनिया के नजारे
कल के यत्न प्रयत्नों में
क्यों अपना आज हम हारें।

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Day3    प्रेम

लिखी एक पाती प्रेम की, कोमल भावों की माला,
स्याही अक्षर से झरती जैसे मन की निर्मल धारा,
रखी बीच पन्नों के पाती, सूखे पुष्प समान,
बरसों बाद भी ले आती है चेहरे पे मुस्कान।
कह पाना था मुश्किल तो सब
लिख डाला पन्ने पर
सोचा डाकिये बाबू को दे दूँगा
गुपचुप दोपहर मोड़ पर।
बैठा था लेकर के सपने भरकर एक लिफाफा,
अनजानी सी आहट, देखा आते सामने से बाबा,

भागा लेकर बस्ता कॉपी,
संग भूत प्रेम का भागा।
आज भी आती है मुझ को बात वो याद पुरानी,
क्या होता जो मिलती उनको पाती प्रेम दीवानी,
न होती ये यादें, वो लड़कपन का दौर सुहाना,
पहले एकल प्रेम का न होता ये अफसाना।

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Day4    पवन

नटखट चंचल सी बहती है
न जाने हर पल क्या कहती है
तारों से जगमग रातों में
पत्तों संग शोर मचाती है
पालने में रोती गुड़िया को
लोरी गा गा के सुलाती है
फूलों के सुनहरे बीजों को
झोली में भर लिए जाती है
दूर देस फुर्र से उड़ के
खेत जंगल में बिखराती है
अथाह गंभीर सागर जल में
ऊंची लहरों को सुलगाती है
आ जाये रौद्र रूप में जब
सब तहस नहस कर जाती है
करती मेघों का उपहास
बहा ले जाए परबत के पास
सूर्य इंद्र को देती मात
हर एक कोने में इसका वास
तपती जेठ दुपहरी भी
तुझ से कुछ राहत पाती है
मेरी तू अंतरंग सहेली
आ आँगन में करें अठखेली
जब भी पूछूं नाम उसका
शरमा के मुझे छू जाती है
न चाहूँ उससे मिलना जब मैं
खिड़की से छुप के आ जाती है
ओ पवन ठहर जा थोड़ी देर
क्यों ऐसे मुझे सताती है ।

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Day5      चिट्ठी

वो जो कभी कहा नहीं
खो गए जो शब्द,
तुम तक पहुंचे ही नहीं?
कैसे, पता नहीं
भेजे तो थे
शायद अधूरे थे
क्या पता ठीक से लिखा नहीं
या धुंधले हो गए जाते जाते
स्याही में कुछ कम नमी थी
या शायद जज़्बातों में कमी थी
या बस आकर्षण था
प्रेम तो कभी था ही नहीं
वरना भाव कब से शब्दों के मोहताज हो गए?
पूरी उमर बीत गयी लिखते लिखते
तह लगा लगा कर रखी थीं दराज़ में
न जाने कैसे सियाही धुल गयी
सफेद से पन्ने मिले कोरे
किताबों में रखे फूल जर्जर हुए
लेखनी के शब्द धूमिल हो गए
प्रेम के कोंपल दरख़्त हुए
और न जाने कब सूख गए
डाकिये न जाने कहाँ मसरूफ हुए
या डाक खाने ही बंद हो गए
चिट्ठियां खो गयीं
या उन्हें पढ़ने वाले खो गए।

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Day6     नदी

बहती नदी की धारा मैं कहती नित ये कहानी
जीवन दायी मां हूँ और हूँ मैं ही बरखा की रानी
फूल फलों पेड़ों को सींचूँ, देती तुमको अन्न
नहीं मांगती मूल्य कभी बस बहती नित प्रसन्न
नवजीवित शिशु और निष्प्राण सभी हैं मेरे तीरे आते
मुझसे हीआशीष लिए फिर अंत मुझी में समाते
पर मानुष बस जाने लेना, करता है व्यापार
माँ को ही दूषित कर डाला, कैसा ये संसार
विष पीकर क्या तुमको फिर अमृत का दान करूँगी
न रहेगा जीवन पृथ्वी पर जो मैं प्रदूषित मरूंगी
समझो जल ही जीवन है, बिन तरिणी न जीवन दान
बरसती अग्नि प्रलय, जो न हुआ प्रकृति का मान।

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Day7       दर्द

जहाँ ज़िन्दगी, सुख, प्रेम है, वहां संग है पीड़ा
इस पीड़ा की, हर एक की अलग परिभाषा
किसी को प्रियतम के विरह की पीड़ा
तो किसी को रोज़ की रोटी की चिंता
कोई है रोता नए खिलौने के लिए
कोई आह भरता एक बिछौने के लिए
कोई हांफता दौड़ता सेहत पाने के लिए
तो कोई चलता मीलों दो बूँद पानी के लिए
कोई सो जाता चैन की नींद, सूखा निवाला खा के
कोई आलीशान महलों में भी सारी रात जागे
कुछ हैं कि चुप रह कर हर दर्द सहते हैं
और कुछ ज़रा सी खरौंच को नासूर कहते हैं
कुछ हैं जो ओढ़ लेते हैं हंसी का मुखौटा
मगर तन्हाई में कितने रातें सिसकते हैं
कुछ दर्द को इस तरह कर लेते हैं जज़्ब
और दवा औरों के दुःख दर्द की करते हैं
कुछ बना लेते हैं हर दर्द को दिल की धड़कन
उन सरफिरों को लोग कलमकार और शायर कहते हैं
दर्द को कहने और सहने के अंदाज़ हैं जुदा
कुछ डूब जाते हैं ग़म ए दरिया में, हो जाते हैं फना
और कुछ दुनिया में नयी मिसालें कायम करते हैं
मुस्कुरा दीजिये तब भी, जब दर्द हो जाए बेकाबू
क्या मालूम आपकी हंसी किस दुखते दिल का मरहम हो|

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Day 8    अगर

अगर मैं होती सोन चिरैया, उड़ आती स्वछंद अम्बर में

अगर मैं होती उड़ता बादल, घुमड़ बरसती बगियन में

अगर मैं होती चंचल तितली, फुदकती हर बन आँगन में

अगर मैं होती मीठी कोयलिया, गाती गीत मधु सावन के

अगर मैं होती उजला चंदा, ताकती तुम्हें झरोखे से

अगर मैं होती गुनगुन भंवरा, छु लेती प्रीतम धीरे से

अगर मैं होती आम्र मंजरी, महकाती मोह आलिंगन में

अगर मैं होती शीत पवन, बाँध लाती फूलों को आँचल में

अगर मिले जाए मुझे कहीं से, जादो की सोन छड़ी

आ जाऊं सानिंध्य तुम्हारे, तज प्रतीक्षा की घड़ी|

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Day9     गुलाब

दिसम्बर की ठण्ड में खिलते गुलाब की कली

सुबह की कंचन ओस में नहायी

कोमल पंखुड़ियों को पसारती

शर्मायी सी, पलकें उठा निहारती

सूरज की पहली किरण से नयन मिलाती

सूरज सौ सौ मनुहारें करता

मेरी प्रिय न इठलाओ इतराओ

उस आवारा भवँरे से करती हो कितनी बातें

कुछ मन की बतियाँ मुझे भी सुनाओ

कली खिलखिला कर बोल पड़ी

अरे ओ सूरज, कितने ईर्ष्यालु हो तुम

क्यों नादान भँवरे से यूँ जलते हो

हर रोज़ सर्द दुपहरी, आँख मिचौली करते हो

फीकी सी धूप दिखा, क्यों सब जग को छलते हो

उदास सूरज, रूष्ट हो बोला

बस देखती हो अग्नि सा उदगार मेरा

हो जाता हूँ नम, देख सलोना रूप तुम्हारा

भस्म न हो जाए मेरे प्रेम की अग्नि में

लावण्यमयी अद्वितीय स्वरूप तुम्हारा

इस ठिठुरते शीत में ही साथ तुम्हारा पाता हूँ,

प्रेम ही है कि पाषाण हृदय मैं, थोड़ा मद्धम हो जाता हूँ।

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Day10    सुबह

जब तुम साथ थे,
नींद में भी मुस्कुराती थी
तुम्हारा चेहरा देखते रात से सुबह हो जाती थी
दिन साल हफ्ते गुज़र रहें हैं अब भी
तुम्हारे बिना आती तो है हर सुबह
मगर कुछ रूठी सी है लगती
अब सुबह की किरण
पहले की तरह मुझे नहीं जगाती|

घड़ी की सुइयों में बंधी ज़िन्दगी
दौड़ती है बहुत तेज़
मगर पहले की तरह
चाय की महक और तुम्हारी खुशबू
दोनों कहीं गुम हैं
अब सुबह बोझिल है
एक नए दिन की फेहरिस्त लेकर
खड़ी दरवाज़े पर
दोपहर बन जाने को आतुर
अब वो मुझे बगीचे में नहीं बुलाती
कोई अधूरा गीत नहीं गुनगुनाती
कुछ नीरस सी नज़र आती है
तुम्हारी तरह
इंतज़ार में एक खूबसूरत कल के
मगर आज को नज़रअंदाज़ कर जाती है।

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Day  11    ख़ुशी

न किसी और को गिरवी रखना
न किसी और का इन्तज़ार करना
न रखना उम्मीद कि कोई
उधार दे जाएगा
न इस गलतफहमी में रहना
कि रुपयों से ये मिल जाएगी
न बाज़ार में बिकती
न तोहफों में मिलती
न प्रेयसी की आंखों में
न प्यार,इज़हार, मनुहार में
न यारी, दोस्ती न व्यापार में
खुशी है सूरज की किरण
खुशी हर रोज़ नया दिन
खुशी छोटी बच्ची की मुस्कान
खुशी माँ का स्नेहिल आँचल
खुशी सावन की पहली बौछार
खुशी अनमनी सी कुनकुनी धूप
खुशी नई खिलती कोंपल
खुशी चहचहाते विचरते पंछी का कलरव
खुशी धरती का असीम प्रेम
खुशी प्रकृति की मनोरम छटा
खुशी दुनिया के ये नज़ारे
खुशी साँसों का खजाना
खुशी अद्भुत सृष्टि रचना का
एक चैतन्य जीवंत कण होना।

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Day12    आईना

आज खिड़की खोली कई दिनों बाद
तो नज़ारा कुछ अलग सा नज़र आया
क्षितिज तक पसरे खेत
पके गेहूं की सुनहरी बालियां
खुले आसमान में लहराती आवारा पतंग
नीम के पेड़ से झरती निबोरियाँ
आम के पेड़ पर कूकती कोयल
सावन में पड़ा मदमस्त झूला
गांव की चौपाल और हुक्का फूंकता कोई वृद्ध
हाथ बढ़ाया तो कुछ भी नहीं
क्या सपना है,
नहीं, खिड़की नहीं, ये तो आईना है
गुज़रे कल का, जो बहुत पहले गिरवी रख दिया
एक हीरों से जड़े सुनहरे आईने के लिए
मगर फिर भी अक्स नहीं दिखता
सिर्फ एक तत्सवीर दिखती है
बीते हुए कल की परछाईं
चारों ओर से घिरती तन्हाई
क्यों इस आईने में अक्स नहीं दिखता!

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Day13   उपहार

कुछ पल ही सही
अखबार और चाय के साथ
आंखों को पढ़ जाना
दो मन की बातें
भूला हुआ गीत साथ गुनगुनाना
कस कर थामना हाथ
नुक्कड़ पर सेशल चाय के बाद
साथ बारिश में भीगते आना
चोट पे मरहम मलना
गुलाब नहीं गुलाब का
पूरा पौधा ही ले आना
किसी बात को सुनकर
सालों बाद दोहराना
रोती हुई आंखों को
कंधे का तकिया देना
और कभी यूं ही
बेमौसम कोई तोहफा ले आना
उन अनमोल लम्हों से कीमती
दुनिया में कोई उपहार नहीं।

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Day14   कश्ती

विचारमग्न इस छोर मैं, तुम चिंतालग्न उस छोर,
करते जुगत कि कैसे पाएं अथाह तरिणी पार
उद्विग्न पवन में नैया डोले, उड़ी विमुख पतवार,
मझधार बीच में सोचे नाविक, कैसे जाऊं पार
जोड़ हाथ नयनों को मूंदे करे ईश का ध्यान,
मन में लो संकल्प तो देते ईश्वर भी वरदान
लिया ठान एकजुट धर साहस
न भीरु बन देंगे निज प्राण
फिर मिलकर थामी नौका सांकल,
किया विपत्ति पर पलटवार,
बुद्धि विवेक साहस संयम से
हो जाती नैया पार, पा जाएँ संसार।

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Day15     सपना

कुछ ख्वाब अधूरे से
मुझे रोज़ नींद में मिल जाते हैं
कितना भी रख दूँ सिराहने
हर रात आँखों में आ ही जाते हैं
कभी उम्मीद बन कर पुकारते हैं
कभी गर्म आंसू बन झर जाते हैं
मगर साथ नहीं छोड़ते मेरा
छुपते छुपाते संकरी गली से
मेरे सामने आ ही जाते हैं
रास्ता रोक देते हैं मेरा
न जाने क्या क्या बतलाते हैं
कितनी की कोशिश समझाने की
ज़िन्दगी है मामला संजीदा
नहीं होती हर जगह ख्वाबगाह सजाने की
तुम रहने भी दो, हैं कई मसले पेचीदा,
मगर फिर भी छोटा बच्चा बन अपनी बाहें फैलाते हैं
और मन के हर धुंधले कोने में बिन अर्जी समाते हैं
ये ख्वाब ही हैं शायद जो मुझको घनी अँधेरी रातों में
छोटी सी रौशनी दिखलाते हैं
कुछ ख्वाब अधूरे से
मुझे रोज़ नींद में मिल जाते हैं।

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Day16     साथी

बचपन के साथी कभी नहीं छूटते
हाथ थामे हर सफर में
काली अँधेरी रात में
खटखटाऊँ कभी आधी रात दरवाज़ा
तो वजह नहीं पूछते
थामे रहते हैं हाथ जो कभी डगमगाऊं
दिखाते हैं रास्ता जो मैं राह भूल जाऊं
हंसते हैं संग और हंसाते भी हैं
जो मैं कभी हंसना भूल जाऊं
वो बस पूछते हैं चेहरे की रौनक
घर के सामान का मोल नहीं पूछते
बचपन के साथी कभी नहीं छूटते
भूल जाऊं अगर कभी खुद को
दुनिया के रिवाज़ों में
धुंधला जाए अगर वजूद
रोज़मर्रा की कश्मकश में
वो बचपन का नाम मेरा नहीं भूलते
बचपन के साथी कभी नहीं छूटते|

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Day17      विवाह

समंदर किनारे प्रेमी जोड़ा
हाथ में हाथ लिए
साथ साथ चलता
और गुटरगुं गुटरगुं करता
जैसे छज्जे पर बैठा कबूतरों का जोड़ा
दीन दुनिया से बेखबर।

सुनैना उन्हें देख बोली देखो ये प्यार है
और एक तुम, कितने नीरस,
कभी ऐसे प्यार नहीं जतलाते हो
हाथ तो दूर,
ऊँगली पकड़ते भी शर्माते हो।

और एक मैं हूँ जो जान देती हूँ
सौ सौ व्रत कर ईश्वर से
अपनी नहीं तुम्हारी
लम्बी उम्र का वरदान लेती हूँ
कहाँ मिलेगी ऐसी सावित्री बोलो
कभी तो प्रेम को शब्दों में भी तोलो
क्या यही प्यार है ?

फिर उसने मेरी तरफ देखा
वही नज़र जो पहली बार टकराई थी
जब मैंने पहली चाय बनाकर उसे पिलाई थी
उसको नज़र भर देखते देखते
शाम से सुबह हो गयी थी
मगर कहता क्या
वो जो अब मेरी हो गयी थी
जिसके ख्वाब देखे थे
वो मेरे इतने करीब थी
बेखबर मेरी तेज़ धड़कनों
और मेरे गहरायी तक पैठे इश्क़ से।

मेरे नाम की कढ़ाई कर जो रूमाल दिया था
और बिदाई पर रोते रोते उसी से गाल पोंछ लिया था
तुम्हारी लाली अब भी शर्माती है सफ़ेद रूमाल पर
वो आसमानी साड़ी जिसका रेशमी सिरा अक्सर
बात करते करते घुमाती हो
वो पूरा किनारी बाजार छान कर लाया था
और डर डर कर अम्मा को बताया था
कि रास्ते में दिख गयी और ले ली
अम्मा एक नज़र में भांप गयीं
किसके लिए है, जान गयीं।

हर बार चाय की प्याली में जो एक घूँट छोड़ देती हो
वो एक घूँट चाय मुझे कितनी भाती है
तुम्हें क्या पता
बिस्कुट नमकीन खाती हो
चेहरे पर रोज़ गुलाब जल लगाती हो
उस रूई के फाहे की खुशबू
कितना लुभाती है
तुम्हे क्या पता।

परांठे गोल नहीं तिकोने बनाती हो
लाल मिर्च का तड़का कुछ तीखा लगाती हो
बिस्कुट चाय में डुबो के खाती हो
चोरी से रसोई में इमली चबाती हो
जब घर की याद आती है तो
बिस्तर पर अपनी पुरानी चादर बिछा
चुपचाप सो जाती हो।

सर दर्द के बहाने आंसू छुपाती हो
और फिर बाबूजी को फ़ोन लगाती हो
और झूठा गुस्सा दिखाती हो
कि इतनी जल्दी क्या थी ब्याहने की
फिर तिरछी नज़र से मेरी ओर देखती हो
और कह देती हो
सब लोग बहुत अच्छे हैं यहाँ।

सहेली से फ़ोन पर कहती हो
कि ठीक ही हूँ मैं, थोड़ा नीरस हूँ ज़रूर
और कहते कहते चेहरे पर लाल रंग उभर आता है
तुम्हारी आँखों की चमक कह देती है मुझसे
कि बहुत प्यार है तुम्हें।
कहती नहीं, मगर चाहती हो बेहद
क्या मुझे नहीं पता ?

हाँ यही प्यार है,
बस यही प्यार है
विवाह से प्रेम विवाह तक
तुम, मैं ओर हमारा अनकहा प्यार|

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Day18     बसंत

आयो बसंत झूमे हर पात डाल
मद मधुबन घूमत सब बाल ग्वाल

मैना कोयल बांचें गीत नए
गुनगुन भँवरे ढूँढत मीत नए

मोर थिरकत यौवन की धुन
पपीहा मिलाये सुर तान झूम

तितलियां घूमें क्यारी प्यारी
मनमोहक हरी भरी हर डारी

पेड़ों ने पहने वस्त्र नए
कामदेव सजाएं अस्त्र नए

सुप्त धरा अंक में फूटे बीज अनेक
गुंथे फूलों से लता के केश घने

विषम शीत बीत मनमीत पुकारे
बसंत ऋतु आगमन पांव पखारे

बरसे रस धार पुष्प मधुराज प्रसन्न
धरती हरी उपजाए कनक धन अन्न

पीली सरसों पीली लदी डाल
पत्ती इतराये पहन पुष्पमाल

उत्सव आनंद नव नवीन उत्साह
लाया बसंत नव सृजन की चाह

सोई आशा को कर जागृत
हर घर प्रांगण में हो हर्ष त्वरित

आओ हम लें ये वचन आज
सब ऋतु मन में छेड़ें बसंत राग।

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Day19    धरती

प्रगति उन्नति के लोभ में मानुष ने बढ़ाये पैर
काटे जंगल पेड़ जीव, बनाने गांव शहर

वानर पशु पंछी विचलित अब कहाँ उनका बसेरा
न कूकती कोयल वन में, न बांग से होता सवेरा

धीरे धीरे शहर बढ़े, हुए दैत्याकार नगर
रोटी कपड़ा मकान खोजते, गांव हुए खंडहर

जहां दौड़ती थी हिम नदियां, वहां दौड़ती रेलें
सीमेंट के जंगल ये ऊंचे, कहाँ वानर पंछी खेलें

प्रदूषण कालिमा लदे बादल कैसे दें प्राण श्वास
धूं धूं कर जलता ईंधन, हवा हुई है विषाक्त

रोबोटों की दुनिया गढ़ ली पर है तो हाड़ मांस का पुतला
समय है अब भी जो घर आ जाये मानुष सुबह का भूला

जननी जीवन दायी पृथ्वी, अंश मात्र है मनुष्य
सामांजस्य से चलती दुनिया, यही प्रकृति का सत्य।

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Day20    बचपन

कुछ निवाले और सर पर साया,
इतना भी बड़ी छतरी वाला न दे पाया

कुछ को है नसीब सारी दुनिया की नियामतें,
चलो कोई बात नहीं साँसों का तोहफा तो हमने भी पाया

भेज दिया धरती पर यूँ तरसने के लिए,
क्या तुझको हम बच्चों पर थोड़ा भी रहम न आया

मगर शिद्दत भी कुछ ऐसी दे दी संग ऊपर वाले ने,
कैसा भी हो तूफान कश्ती को डुबो न पाया

न मिला मखमली बिस्तर तो कोई ग़म नही,
उम्मीद का बिछौना नरम बिछा सो गए

नींद मेहरबान है हम पर कि पलकों पर बैठी है,
झूठी ही सही रोटी पेट भर खा कर सो गए

तू तरस न खा ऐ ज़माने इस हाल पर मेरे,
धूप में तप कर हौसले और रवाँ हो गए

हम जैसे लिख जाते हैं इतिहास भी कभी,
देख पानी के कुछ कतरे आज बरसता आसमां हो गए|

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Day21    चाँद

वो ईद का चाँद है
रंग उसका सुनहरा है
देखा तो था दरिया के पार
न जाने कहाँ उसका बसेरा है
रेगिस्तान में पानी सी परछाईं उसकी
या सच में उसका चेहरा है?
उसके लुका छिपी के खेल में
फिर हुआ आज एक और सवेरा है
रात गुज़र गयी उसे निहारते
यूं ही नींद पर उसका पहरा है
नहीं वो अपना, है मुझे मालूम
पर ख्वाबों में उस पर हक़ मेरा है
ऐ चाँद बता क्या है इरादा
तेरी नज़र में राज़ कोई गहरा है
यूं तो बहुत हैं सितारे आसमान में
न जाने क्यों तुझ पर ही मन ठहरा है।

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Day22      तुम

तुम्हारे आने की आहट से मुस्कुराये हर सुबह शाम
तुम्हारे पल्लू से बंधा मेरा पूरा संसार
मेरी भूख प्यास तकलीफ सब समझती तुम
तुम पर निर्भर मेरा पूरा घरबार
रसोई में तुम्हारी चूड़ियों की खनक
घर भर में तुमसे ही चमक
रसोई में तुम्हारे हाथ बनी चाय की महक
जब मैं पड़ी बीमार तो था तुम्हारा ही सहारा
खिचड़ी दही खिलाकर तुमने ही उबारा
मेरी घर गृहस्थी की तुम सिपहसालार
हर त्योहार, समारोह में तुम्हारी पुकार
घर दफ्तर सब संभाल पाती हूँ जब तक तुम्हारा साथ
तुम और तुम्हारे बिना, कांता बाई, मैं कुछ नहीं।

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Day23   शांन्ति

भोर सवेरे उठकर दबे पाँव
गुपचुप बना एक प्याली चाय
अपने संग सिमटे कुछ पल
उनींदा अलसाया बोझिल मन
गहरी नींद में डूबा मंज़र
सलेटी धुंधला कुहासा
शांत धरती, शांत पवन
शांत मन की हलचल, कोलाहल
शांत हर चिंता निंदा जिज्ञासा
शांत हर गीत, ह्रदय संगीत
शांत सागर की लहरें गहरी
शांत वेदना की लकीरें सारी
शांत हर आशा आकांक्षा
शांत हर मनुहार तक़रार
शांत उद्वेलित उर पिपासा
शांत व्योम, विलीन चांदनी
शांत पग पग चढ़ता सूरज
शांत चंचल मन की हर गिरह
शांत हर शंका, हर समाधान
चित चितवन सब शांत
मुझे हर सुख से प्रिय
शांत वृत्तांत, शांत चिर एकांत।

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Day 24  सड़क

मीलों तक भागती चलती, कभी न थकती
नदी नालों मैदानों को काट
दुर्गम परबत को देती मात
हर अकेले पथिक का निभाती साथ
कड़ी धूप में जलती तपती
उठाती बोझ हज़ारों का, पर
न थकती, कभी उफ़ न करती
बारिशों में सह जाती कितने उफान
जर्जर कट छंट हो जाती लहू लुहान
तब भी मज़दूर का ठेला पार कराती
कृषक को मंडी तक पहुंचाती
बिदा होती राधा संग अश्रु बहाती
डाक्टर, शिक्षक को हर गाँव पहुंचाती
बापू की लाठी संग दांडी तक हर पग इसने नापे
देवों के रथ के पहिये भी बरसों माथे लागे
बिजली, पानी, गाड़ी, सब सड़क से होकर आते
गुस्साए लोगों का आक्रोश कभी बन जाती
मोर्चे आंदोलन का मंच जनता यहीं हैं पाती
कभी जन्म शादी ब्याह के जलसे हो गुज़र इसी से जाते
कभी स्वर्गोन्मुख अर्थी को नमन ये करती
हर गाँव, शहर, नगर की सड़क है जीवन रेखा
दूर सुदूर प्रांत देशों से सबको पास ये लाती
क्या व्यापारी, क्या जोगी, क्या राज का कोष
सड़कों पर भटक सभी यहाँ है पाते मोक्ष
जीवन सड़क, भरी दुपहरी, है हर पल चलते जाना

सड़कों से सीखा हमने, निरंतर लक्ष्य को बढ़ते जाना|

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Day 25    बारिश

छज्जे से झमाझम बरसता पानी
बूंदों संग झरती यादें पुरानी

याद हो आयी बचपन की कहानी
जब बुलाते थे कि आओ बरखा रानी

कॉपी बस्ता रख एक किनारे
गड्ढों में कूद पड़ते थे सारे

कीचड का चढ़ा चेहरे पर लेप
भर लेते झोली में खुशियां लबरेज़

मेढकों की टर्र टर्र का संगीत
हीरों से जादुई जुगनुओं का गीत

नहा धो कर चमकते पेड़
जैसी ओढ़ी हो नयी खेस

वल्लरियाँ कोंपलें नयी नवेली
कब उग कब करने लगीं अठखेली

गाँव में सरस सावन का झूला
कृष्ण संग गोपी रचाएं रासलीला

हो गयीं फसलें भी अब तृप्त
निराश कृषक के नयन दीप्त

आँख भर जाए याद पिया की
सावन में तड़पाये पीर जिया की

बरसे जल धार झरोखे से
प्रिय रुकते न अश्रु रोके से

रहते मोरे पिया बिदेश
भेजूँगी बादल से संदेस

ये सावन तो बीता सूना
अगले सावन तुम आओ न|

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