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शतरंज की बाज़ी

एक काव्य मंच पर ‘शतरंज की बाज़ी’ विषय कविता लिखने के लिए दिया गया और दो छोटी कविताएं लिखने का प्रयास किया है:

पहली कविता :

कुरुक्षेत्र के रण में खड़े
कृष्ण बन अर्जुन के सारथी

हे कौन्तेय नहीं ये परिजन
यहां बिछी शतरंज की बाज़ी

क्रोध दम्भ लोलुपता के
सजे कतार में प्यादे

न हो भ्रमित विपरीत बुद्धि
न करो शत्रु से मोह

बजा दुन्दुभी सत्य की
करो विजय उद्घोष

चुना समय ने तुम्हें
करो स्थापित धर्म का योग।

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दूसरी कविता:

दो कमरों का छोटा सा घर, ये हम दोनों का सपना था

चलते गए हम तुम संग संग, इक इक कर कमरे जुड़ते चले

दुनिया ने जो पैमाना दिया, उस पर हम खरे उतरते चले

राजा रानी घोड़ा हाथी, कितने किरदारों में ढलते गए

फिर हार जीत के फेरे में, शतरंज की बाज़ी चलते गए

कोई जीत गया कोई रीत गया, खो गए कोमल सपने कहीं

चौंसठ कमरों की हवेली में, हम तुम कभी मिलते ही नहीं

काला सफेद नीरस बंजर, इस फर्श पर फूल खिलते ही नहीं।

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