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अपना कोई कोना

जीवन की आपाधापी, मन के भीतर का कोलाहल
अंत: में पड़ी कुछ सिलवटें, यादों की उलझी गिरहें
समय की गठरी में लिपटे कुछ दर्द पुराने
कुछ कहानियां कुछ किस्से अनसुने मनमाने
पूरा पुलिंदा लेकर बैठी कई महीनों बाद
कुछ तजुर्बों को एक एक कर कांटा छांटा,
कुछ उधड़ी तस्वीरों पर पैबंद लगाया
थोड़ी ऊल जुलूल सी बतियों को धूप दिखाई
कुछ भूली सी कविताएं उभर आईं
कुछ ही देर में संवर गया पूरा बिछौना
ढूंढती फिर रही थी कब से, आख़िर मिल ही गईं
छत पर पुरानी किताबें, क़लम और अपना कोई कोना।

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