फिर घिर आईं घटाएं काली,
बरसन लगीं बूंद मतवाली
ऊष्म धरा की तृप्त पिपासा,
त्रस्त कृषक की जागी आशा।
परबत नदी गगन जल प्लावित,
इंद्र देव अवनी पर मोहित
बरखा की बूंदों में नहाये,
खग मृग जलज सरस मुस्काये।
तरिणी झर झर मेह को तरसे
सागर मिलन को आतुर कबसे,
बरसे मेघ मल्हार अब बरसे
बन बन हरसिंगार बन बरसे।
सजनी के हिय को तरसाएं,
नयनों से प्रिय क्षुधा बहाएं
नव वसन पहन वृक्ष इतराए,
चुनर हरित ओढ़ शरमाए।
कान्हा यमुना तट रास रचाएं,
कामदेव रति अस्त्र चलाएं
बाल ग्वाल उल्लास प्रफुल्लित,
प्रकृति प्रेम में कण कण हर्षित|