कभी कभी चलते चलते
कोई ऐसा शख्स मिल जाता है
जो लगता है जाना पहचाना
होकर भी अनजाना
लगता है पहले देखा है कहीं
या शायद की है कभी बात भी
कुछ अपनापन या आत्मीयता
समझ में नहीं आता क्या,
मगर होता है महसूस
जानती हूँ इसे ज़रूर
मिली हूँ कभी न कभी, मगर कब, कहाँ
कुछ याद नहीं आता
फिर कैसे समझ लीं इसने मेरी बातें
जो अक्सर लोगों को समझ में नहीं आतीं
वो जो साथ हैं, सालों से जानकार हैं
वे भी समझ नहीं पाते
या समझना नहीं चाहते
तो फिर इसने कैसे पढ़ ली आँखों को बोली
क्या कहना चाहा था, क्या मतलब था
कैसे समझ लीं उलझनें, सपने, आशाएं
बिन कहे सुन लीं सब बातें, हसरतें|
मुझे भीड़ पसंद नहीं कैसे उसे पता?
मन ही मन कौन सा गीत रही थी मैं गुनगुना
उगता सूरज, सुबह की खुशबू
कोई पुरानी ग़ज़ल, नीरज की कविता,
मन में चल रही थी
उसे कैसे पता?
शायद कुछ रिश्ते, दोस्ती, प्रेम, अपनेपन के
संग संग गढ़े जाते हैं, फिर वो धरती पर आ
कहीं इधर कहीं उधर बिखर जाते है
मगर आत्मा की ललक, आमने सामने आ ही जाते हैं
मानो या न मानो, कुछ रिश्ते ऊपर से बनकर आते हैं
उनका कोई नाम, पता या वजूद नहीं
दिल से दिल तक, दुनिया के किसी भी छोर तक
अचानक कहीं न कहीं
चमत्कार से प्रकट ही ही जाते हैं।
(तस्वीर: Pixabay)