बचपन के दिन कितने सुहाने और मनभावन होते हैं, बचपन को जितनी खूबसूरती से जिया जा सकता है जीना चाहिए, क्यूंकि बचपन दोबारा लौट कर नहीं आता।
“मम्मी आज बाल दिवस है, बच्चों का दिन.जब आप छोटे थे तब भी बाल दिवस मनाते थे?” सात साल के सोनू ने सुबह सुबह ये सवाल किया ।
मुझे अब भी याद है मेरा स्कूल घर के पास ही था। न बसों का झंझट न कोई जल्दी। स्कूल का घंटा इतना तेज़ बजता था कि उसकी आवाज़ घर तक सुनाई दे जाती थी।मैं और मेरा छोटा भाई हाथ पकड़ कर पैदल ही स्कूल जाते थे रास्ते में कभी किसी के बागीचे से फूल तोड़ टीचर के लिए ले जाते। अक्सर कुछ शरारती बच्चे बीच में मिलते और हमारे झगडे भी होते।मेरे स्कूल की एक अध्यापिका का घर रास्ते में पड़ता था। जब भी वो छुट्टी लेतीं उनके पति, जिन्हे हम सर कहते, वो बाहर आकर उनका छुट्टी का निवेदन पत्र मुझे देते और कहते, जाते ही प्रिंसिपल को दे देना। मेरी अन्य सहेलियों पर इस बात का बहुत रौब पड़ता कि टीचर की चिट्ठी मैं प्राचार्य तक ले जाती हूँ और किसी की शिकायत भी कर सकती हूँ ।
रास्ते में घने पेड़ और जंगली फूल पौधे सड़क के दोनों ओर लगे होते थे।कई बार तो चिलचिलाती धूप में ज़मीन पर गिरे हुए पके शहतूत, इमली वगैरह हम रूमाल में बाँध कर घर ले जाते।बारिश का मौसम तो जैसे स्वर्ग सुख समान था। रोज़ रिमझिम बारिश में भीग कर घर आते, कीचड में खूब छलाँगें मारते और घर जाकर मम्मी से डाँट खाते। शाम को होमवर्क ख़त्म कर देर रात तक बाहर खेला करते तो कभी छत पर बैठ तारे गिनते। कितने सुन्दर थे वो दिन, जब न टीवी था न मोबाइल, न बहुत खिलौन बोतल के ढक्कन से पत्ते गोल गोल काट कर रोटियां और नीम निम्बौरी की सब्ज़ी बना घर घर खेलते। एक गुड़िया और कुछ लकड़ी के छोटे बर्तन, बस ये काफी थे खेल रचाने के लिए घर के बाहर मिटटी के छोटे टीले बनाना,चीटियों की लाइन को देखना,गौरैया को दाने डालना, गाय को रोटी देना ये सब मन भर किया करते।
आज बड़े शहरों में सुविधाएं तो बहुत हैं मगर आधुनिक युग ने बच्चों से वो अल्हड़ मस्ती और बेपरवाह खेल कूद छीन लिया है।सुबह से स्कूल बस की दौड़,पढ़ाई का ज़ोर, कई क्लासेज और टीवी मोबाइल ने बच्चों को खुले आसमान से दूर कर दिया है।
जब तब उन दिनों के बारे में सोचती हूँ तो मन कहता है कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन|