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पढ़ेगा इंडिया

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“अरी मुनिया तू आज इतनी जल्दी कैसे आ गयी? और चूड़ी के डब्बे ले आयी बाजार से?”

“नहीं माई आज वहां की सड़क बंद है, हवलदार ने जाने नहीं दिया।”

“हाय राम! आज हाट में क्या लगायेंगे अब? तेरा बापू तो शाम से नशा किये न जाने कहाँ पड़ा है, अब कल क्या खिलाऊँगी तुम दोनों को? कामचोर! पता नहीं क्यों भगवान ने मुझे इस नरक में धकेल दिया।” मुनिया की माई ने अपना पूरा गुस्सा मुनिया पर उतार दिया। गाल सहलाते हुए मुनिया एक कोने में जा बैठ गयी। उसे रोता देख भोलू भी सहम कर उसके पीछे दुबक गया। दिल का गुबार ठंडा हुआ तो माई ने आकर दोनों को गले लगा लिया।

“तू अब बड़ी हो रही है मुनिया मेरा सहारा बस तू ही है, फिर क्यों नहीं समझती, काम नहीं करेंगे तो भूखों मरेंगे हम सब। “सच बता क्यों लौट आयी आधे रास्ते से?”

मुनिया सुबकते हुए बोली “माँ वहां जो सरकारी इस्कूल है वहां कोई नेता आ रहा, राधा जा रही थी रिक्शा में, बोली मिठाई बंटेगी, ये सुनकर हम भी ठेला लेकर रिक्शे के पीछे लग लिए। इस्कूल के बाहर खड़े थे, वहां सब बच्चों की दौड़ हुई, कुछ बच्चे कम थे तो मास्साब हमें भी गेट से अंदर बुला लिए। जब हम दौड़े तो सबसे आगे निकल गए। सबने ताली बजायी। नेताजी पूछे कौन सी किलास में हो। हम बोले हम इस्कूल में नहीं हैं। नेताजी मास्साब से कुछ बोले। मास्साब उनके सामने प्यार से बोले कल से इस्कूल में आना, तुम्हारा दाखिला हो जायेगा। बाद में घुड़क दिए कि क्या जरूरत थी बोलने की यहाँ नहीं पढ़ती? मिठाई भी नहीं दी और इनाम के बीस रूपए भी वापिस ले लिए। हमें भी इस्कूल जाना है माई, नेताजी बोले थे।”

“नेताजी बहुत कुछ बोलते हैं पगली, और बोलकर चले जाते हैं। गरीब का इस्कूल जिंदगी की तपती सड़क पर ही चलता है, भूख प्यास बहुत कुछ सिखा देती है। चल अब जल्दी कर, ठेला लेकर जा नहीं तो आज की कमाई हाथ से निकल जाएगी।”

छोटी सी मुनिया नम आँखों में इस्कूल और बजती तालियों के बड़े सपने लिए ठेला लेकर फिर चल दी।

घर पर रानी मन ही मन अपनी लाचारी और बच्चों पर बरसने पर ग्लानि से रो उठी।  गाँव के दिन उसे याद आ गए।  वो भी तो मुनिया जैसी ही थी, तेज़ तर्रार, दिमाग की चपल।  माँ के साथ घर के काम और छोटे भाई बहनों को पालने में हाथ बंटाया करती।  घर में उपले, दीये बनाना सीख गयी थी और उन्हें जाकर बेच आती।गाँव में प्राइमरी विद्यालय खुला तो अम्मा उसे ले गयी दाखिला दिलाने। वहां पढ़ने के साथ सब बच्चों को खाने को सत्तू भी देने का वादा किया गया।  उसे वहां बहुत मज़ा आया, सबके साथ खेलना, सलेट पर आकार बनाना, मगर फिर उसका मन उचटने लगा। कुछ दिन पढ़ाई हुई फिर मास्टरजी का आना कम होने लगा और धीरे धीरे महीने में कुछ दिन ही उनके दर्शन होने लगे| जिस दिन मास्टरजी न होते बच्चे तालाब पर चले  जाते या इधर उधर घूमते फिरते। ये सिलसिला चलता रहा और माँ को भी पता न चला।  फिर एक दिन गाँव की किसी औरत ने जाकर माँ से कह दिया, तेरी छोरी पूरे गंव में आवारागर्दी करती फिरती है, उसे संभाल वर्ना नाक काट जायेगी। उस दिन से विद्यालय, पढ़ाई सब बंद हो गयी और एक साल में उसका ब्याह हो गया। ब्याह में नए कपड़े मिले, मीठे पकवान बने, ये देखकर बड़ी खुश हुई थी वो मगर गृहस्थी गरीबी के जाल में फंसी तब पता चला क्या खो दिया।  गरीबी गाँव से शहर ले आयी और अब किसी तरह बच्चों के लिए दो रोटी जुटा पा रही थी।

मुनिया भी तो बिलकुल उस जैसी है, इत्ती सी उम्र में इतनी होशियार, घर बाहर सब काम सीख गयी है। पढ़ने की ललक है, पर मैं कहाँ से खर्च निकालूँ।

अगले दिन इसी उधेड़ बुन में रानी हाट पर चूड़ी ले बैठी थी कि राधा आ कर बतियाने लगी।  “अरे तेरी मुनिया उस इस्कूल की दौड़ में पहली आयी, मेरा चुन्नू बता रहा था, ईनाम भी मिला, उसे पढ़ने क्यों नहीं भेजती?”

” पढ़ने भेजूंगी तो बाजार से चूड़ियां कौन लाएगा, भूखे पेट कैसे पढ़ेगी बोल ज़रा।”

” देख तो कितनी लगन है तेरी मुनिया में।” रानी ने मुड़कर देखा, एक मुड़े तुड़े अखबार को देख कर मुनिया गिट्टी से ज़मीन पर अक्षर उकेर रही है। रानी की आँख भर आयी।

“सुन, एक मास्टरनी हैं जो शाम को बच्चों को पढ़ाती हैं पास मैदान में, उनसे पूछूं? शाम को तो भेज सकती है न? तुझे छोड़ने और लेने जाना पड़ेगा, करेगी?”

रानी ने झट हाँ कहा और अगले दिन मास्टरनी से मिलने चल दी। मास्टरनी ने सरकारी इस्कूल वाली बात सुनी तो उनकी आँखें चमक उठीं और मुनिया की पढ़ाई शुरू हो गयी। दिन में ठेले पर सामान लाकर, घर के काम में हाथ बंटाकर मुनिया मैदान पाठशाला जाने को आतुर रहती और हिरणी सी उछलती पहुँच जाती।

पढ़ाई में उसका मन लगने लगा और धीरे धीरे वो मास्टरनी जी जैसा बनने का सपना बुनने लगी। ठीक वैसे चलती, बोलती और छोटे भाई को पढ़ाने का खेल खेलती। गणित सीखा और बाजार में अब जोड़ बाकी करने में उसे आसानी होने लगी। हाट पर भी पैसों का हिसाब ठीक से रखने लगी। किस सामान पर ज़्यादा फायदा है, ये सब सीखा और हाट से दो पैसे ज़्यादा आने लगे। मास्टरनी ने भी उसे प्रोत्साहित करने में कोई कसार न छोड़ी। पाठशाला को कुछ धनी लोगों से आर्थिक मदद मिल रही थी, मुनिया जैसे होशियार बच्चों की पढ़ाई किताबों के ख़र्च का इंतज़ाम हो गया।

मुनिया ने दसवीं की परीक्षा का फार्म भरा और जी तोड़ मेहनत की।आज मुनिया की दसवीं परीक्षा का परिणाम आया। अखबार में परिणाम देखकर मास्टरनी ने उसे गले लगा लिया। जिले के अव्वल दस बच्चों में उसको स्थान मिला था।

सरकारी इस्कूल में सबको सम्मान और उत्साहवर्धन के लिए बुलाया गया। जब मुनिया पुरस्कार लेने पहुंची तो उसका परिचय दिया गया कि उसने ठेला चलाते, हाट पर सामान बेचते और शाम की पाठशाला में पढ़कर परीक्षा पास की थी। उसके लिए आज फिर तालियां बजीं, माला पहनाई गयी और ईनाम में किताबें दी गयी। आगे की पढ़ाई के लिए इस्कूल में दाखिला हुआ, वजीफा भी दिया गया।
नेताजी मंच पर खड़े थे, मास्टरनी जी गर्व से मुस्कुरा रही थीं, उनकी शाम पाठशाला को पूरे दिन की पाठशाला बनाने को जगह दी जा रही थी और कुछ सेवा संस्थान आर्थिक मदद को तैयार थे। मुनिया अब अपने आस पास अपने जैसे बच्चों को पढ़ाने भी लगी थी।

नेताजी ने पूछा तुम बड़े होकर क्या बनना चाहती हो, सब को बताओ। मुनिया सर उठा कर बोली मैं मास्टरनी जी की तरह एक इस्कूल खोलूंगी जहाँ मेरे जैसे बच्चों को पढ़ाया जाएगा और उनसे कभी कोई ईनाम वापिस भी नहीं लिया जाएगा।

नेताजी की समझ में कुछ नहीं आया मगर मास्टरनी जी मुस्कुरा दीं। रानी दूर खड़ी अपने आंसू पूँछ रही थी।

पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा इंडिया।

(इमेज क्रेडिट: Unsplash)

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