मैं गर्मी की छुट्टियों में हर साल की तरह इस साल भी पहाड़ भ्रमण के लिए परिवार सहित आयी थी| अच्छा संयोग था कि मेरा जन्मदिन भी इसी बीच पड़ रहा था| जन्मदिन प्रकृति के बीच मनाऊं इससे ज़्यादा सुखद और क्या हो सकता था| बचपन से पहाड़ों की प्रेमिन थी| पहाड़ों की हवा की खुशबू, बलिष्ठ ऊंचे देवदार, चीड़ के पेड़, चढ़ाई के साथ हवा में बढ़ती हल्की सी सरसराहट, ये अनुभूतियाँ ही जैसे जीवन का असली सुख लगता मुझे| हम सिक्किम की राजधानी गंगटोक से उत्तरी सिक्किम जा रहे थे मगर ये सफर अन्य पहाड़ी स्थलों जैसा नहीं था| पर्यटन की होड़ और भीड़ भाड़ से अब भी बचा हुआ ये क्षेत्र, सीमा के पास होने के कारण सेना बहुल्य भी था| उत्तरी सिक्किम को हाल ही में पर्यटन के लिए मंज़ूरी दी गयी थी| दुर्गम पहाड़ी पगडंडीनुमा रास्ते कभी भी बारिश होते ही गंगटोक से कट जाते| ठण्ड में तो जाने का सवाल ही नहीं, सेना अनुमति ही नहीं देती थी|
हमारे जीप चालक ने चलने से पहले कहा “मैडम प्लास्टिक की बोतलें पैकेट वगैरह वहां ले जाना वर्जित है, रास्ते में गाड़ी की चेकिंग होगी, पाए जाने पर मुझे फाइन देना पड़ेगा|”
“नहीं मेरे पास स्टील की बोतलें हैं, उनमें पानी ले लिया है होटल से, आप निश्चिन्त रहो, आपका नुकसान नहीं करवाएंगे|” मैंने हँस कर उत्तर दिया और हमारी मनोरम जीप यात्रा प्रारम्भ हो गयी|
कुछ दूर निकले और बीच में एक सेना की चेक पोस्ट आयी| पहले से कुछ पर्यटक गाड़ियां किनारे रुकी हुईं थीं| किसी कंपनी के कर्मचारियों का झुण्ड दिखता था| गाड़ियों पर बैनर लगा था जिस पर कंपनी का नाम भी लिखा हुआ था| कुछ लोग गाड़ियों से उतर किनारे छोटी सी चाय की टपरी पर खड़े चाय पी रहे थे| उनकी गाड़ी के चालक ने चेक पोस्ट से अनुमति कागज़ पूरे होने का इशारा कर सबको बुलाया और उनमें से कुछ ने चाय ख़त्म कर वहीं नीचे की ओर घाटी में कागज़ के कप फ़ेंक दिए| सब गाड़ी में चढ़ ही रहे थे कि एक स्थानीय महिला चाय की दुकान पर आ चाय वाली से लड़ने लगी| उनकी भाषा तो समझ में नहीं आ रही थी मगर इशारे से ये मालूम हो गया कि वो उन लोगों द्वारा चाय के कप घाटी में फ़ेंक दिए जाने पर नाराज़ थी| हाथ में एक बांस की टोकरी थी जिसमें वो आसपास का कचरा इकठा कर रही थी| चाय वाली ने उसे पास रखा कचरे का डब्बा दिखाया और कह रही थी कि मेरी गलती नहीं कि उन लोगों ने कचरा घाटी में फ़ेंक दिया| मगर उस महिला को तसल्ली न हुई और वो जीप के पास जा उन लोगों से पूछने लगी कि कचरा नीचे क्यों फेंका| उनके पास कोई उत्तर नहीं था तो ड्राइवर ने ही उनकी तरफ से उससे माफ़ी मांगी और फ़ौरन तीनों गाड़ियां वहां से चल दीं| पढ़े लिखे बड़ी कंपनियों में काम करने वाले, अच्छा खासा कमाने वाले ये लोग ठीक उस सोच को दर्शा गए थे जिसके कारण हमारे देश में साफ़ सफाई का अजब आलम है| “ये मेरा मसला नहीं|” सड़कों पर कचरा फ़ेंककर हमारी ज़िम्मेदारी वहीं ख़त्म हो जाती है, ये नहीं सोचते कि ये कचरा आखिर हमारे आसपास पर्यावरण को ही नुकसान पहुंचाएगा, किसी नहर नाले नदी को दूषित करेगा, किसी जानवर के पेट में जाएगा और मिट्टी में मिल फिर हमारे भोजन को दूषित करेगा|
उत्तरी सिक्किम प्रवेश रास्ते में वाकई चेकिंग के लिए गाँव समिति के लोग खड़े थे| गाड़ी को पूरी तरह से जांचा गया कि कोई प्लास्टिक बोतलें तो नहीं हैं और तब ही जाने दिया| रास्ते में चालक बोला, “टूरिस्ट यहाँ आकर बहुत प्लास्टिक फेंकते हैं और कचरा फैलाते हैं| ऊपर गाँवों में पानी के स्त्रोत अभी भी साफ़ हैं, यहाँ लोगों को डर है अगर इस तरह पर्यटक बढ़ते रहे तो उनका पानी दूषित हो जाएगा| इतनी ऊँचाई पर नीचे शहर से पानी लाना संभव नहीं इसलिए ये सब उपाय करने पड़ते हैं|”
मैंने मन में सोचा, एक अच्छी सोच का इस से बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है| आखिकार अपना घर गंदा करेंगे तो उसमें जीना भी तो हमें ही पड़ेगा| ये सोच बड़े शहरों के बुद्धिजीवियों में क्यों नहीं पनपती|
बहरहाल हम दिन भर का सफर तय कर गंतव्य तक पहुंचे| छोटे से गाँव में घरों को होटल के कमरों में तब्दील कर दिया गया था| हिमालय के करीब होने का अहसास कड़कड़ाती ठण्ड ने करवा दिया| होटल चलाने वाले लड़के जग में पानी लेकर आये तो आदतानुसार हमने पूछ लिया कि कैसा पानी है, साफ़ तो है न| सुनकर वो हंसने लगे| “मैडम इससे ज़्यादा साफ़ पानी आपको कहीं नहीं मिलेगा, ये पहाड़ी झरनों से आता पानी है| यहाँ अभी तक प्रदूषण नहीं फैला है, सप्लाई का पानी ही सभी पीते हैं और यहाँ प्लास्टिक बोतल का पानी उपलब्ध ही नहीं है| आप कल सुबह उठकर बाहर जाना तब आपको यहाँ के हवा पानी का फ़र्क़ समझ में आएगा|”
खाना खाकर रजाई में जो एक करवट दुबक कर सोये तो ठण्ड के मारे करवट बदलने की हिम्मत ही नहीं हुई| सुबह हुई तो हिम्मत जुटा कमरे की खिड़की खोली| सामने एक लकड़ी रखने का कच्चा शेड दिखाई दिया और उसमें किसी ने मुर्गियां पाली हुईं थीं| ओह तो मुर्गे की सुबह की सुरीली बांग यहीं से आ रही थी| नज़र ऊपर गयी तो अद्भुत नज़ारा सामने था| जो पहाड़ की चोटी कल ऊपर आते वक़्त दूर से गाइड ने दिखाई थी वो ठीक सामने अपने पूरे वैभव में खड़ी थी| पहाड़ी झरने की लम्बी धार जैसे किसी सुंदरी के चेहरे पर गिरती हुई लट के सामान लहरा रही थी| ऊपर चोटी पर सूरज की किरणों की आभा में बर्फ चांदनी में नहायी रुई जैसी लगती थी| शुद्ध वातावरण और अबाध्य प्राकृतिक रूप किसे कहते हैं ये यहाँ आ कर समझ में आया| अब तक जितने हिल स्टेशन देखे थे सभी किसी फिल्मी सेट जैसे लगते थे, भीड़ भाड़, गाड़ियों, पर्यटकों और छोटे बड़े होटलों से अटे| ऐसा नज़ारा वाकई पहले कभी नहीं देखा था| दुर्गम सफर की पूरी थकान खिड़की से झांकते ही मिट गयी| साथ ही मन में कुछ ग्लानि भी हुई कि हमारे जैसे पर्यटकों और स्थानीय लोगों की आर्थिक ज़रुरत के चलते शायद कुछ समय में ये जगह भी व्यावसायिक हो चले| दस पंद्रह साल पहले जिन पर्यटक स्थलों को देखा था अब उनकी दुर्दशा देखकर दुःख होता है| स्थानीय पर्यटन एक तरफ व्यवसाय और रोज़गार जुटाता है वहीं दूसरी ओर नैसर्गिक सुंदरता को नष्ट भी कर देता है| व्यक्तिगत आय और पर्यटन के बढ़ने से कई पहाड़ी पर्यटन क्षेत्र अब न जाने लायक हो गए हैं| अंधाधुंध जंगल, चाय बागानों को काटकर कुकुरमुत्ते जैसे होटल उग आये हैं| गाड़ियां, बाज़ार, आबादी के बढ़ने से तापमान भी बढ़ चुका है| प्लास्टिक प्रदूषण की बात न ही करें तो अच्छा| होटलों में प्लाटिक और पानी दोनों की लागत अच्छी खासी रहती है और उसे काम करने के उपाय कोई नहीं करना चाहता|
घूमने फिरने के बाद जब वहां से वापसी हुई तो मन ही मन ये प्रार्थना की कि ये रास्ते दुर्गम ही रहें तो भला, वर्ना हम जैसे शहरी पढ़े लिखे यहाँ भी अपना कचरा, शोर, धुंआ लेकर चढ़ाई कर डालेंगे|
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