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पच्चीस दिन पच्चीस कविताएं

Day 1    समय आसमान धुला, नीला, धूप में खिला खिला रुई के मुलायम फुग्गे जैसे बादलों से खेलता वो समय याद हो आया, जब माँ सफेद यूनिफार्म नील लगाकर धूप में सुखाती थी लगा जैसे…

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नसीब

कुछ निवाले और सर पर साया, इतना भी बड़ी छतरी वाला न दे पाया कुछ को है नसीब सारी दुनिया की नियामतें, चलो कोई बात नहीं साँसों का तोहफा तो हमने भी पाया भेज दिया…
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क्यों

कहते हैं एक स्त्री दूजी स्त्री की पीड़ा समझती है तो क्यों सास बहू के किस्से सारी दुनिया कहती है? क्यों पितृसत्ता के नियम औरत कायम रखती है एक पर हो अत्याचार तो दूजी क्यों…
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पिंजरे

जब घर की औरतों के सर उठते हैं तो न जाने क्यों लोग घबराने लगते हैं कौन सी बात निकल कर आ जाये बाहर इस डर से थरथराने लगते हैं जिस पेड़ की छांव में…

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रंगीला देश मेरा

बतलाओ ज़रा कि हिन्दू हूँ मैं या हूँ मुसलमान क्या रौबीला हिमालय या गहरा हिन्द महासागर मेरी पहचान गंगा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, सतलुज या कावेरी कौन है इनमें सबसे चंचल, सबसे प्रिय बेटी मेरी जो पैरों…
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स्त्री

कण कण में बसी क्षण क्षण में रची, ये रंग बदलती रवानी है। वो जिसको कह भी न पाई कभी, नारी की विषम कहानी है। बचपन बीता सकुचा सिमटा, यौवन आया नई आस लिए। आयी…
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दीया और बाती

दीये की जलती बुझती लौ टिमटिमाती हवाओं में, पर न हारे हिम्मत चाहे बवंडर हों लाख फ़िज़ाओं में दीवाली ने पूछा दीये से आखिर क्यों जलते हो तुम, साल दर साल भोली बाती को क्यों…

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राजकुमारी 

खड़ी क्षितिज को दूर निहारती थी एक राजकुमारी ढूंढती अपना अस्तित्व अनुपम विशाल सृष्टि में सारी क्या है मेरा कोई टुकड़ा समस्त ब्रम्हांड सृजन में क्यों रहती हूँ मैं बंद सजीले महल भवन में नहीं…
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छोटी सी बात

जिंदगी की दौड़ में दौड़ते दौड़ते छूट गए हाथ जो आओ अभी उन्हें थाम लो कर दो बंद सब शिकायतें नाराज़गियाँ किसी पुराने संदूक में गिनती की सांसें हैं, चुक न जाएँ कहीं झुक जाओ…